SULTANA DAKU KA QILA OR PATTHAR GARH KA QILA,NAJIBABAD,BIJNORE
सुलताना डाकू का किला अथवा पत्थर गढ का किला,नजीबाबाद, बिजनौर . लगभग तीन सौ साल पूर्ब यह किला बनवाया था नजीबाबाद के नवाब नाजीबुद्दोला ने । बाद में इस पर सुलताना डाकू जो इसी जगह का था, कब्जा कर लिया। आज लोग इसे सुलताना डाकू का किला कहते है। सन 1755 में निर्मित पत्थरगढ़ के किले में सुल्ताना डाकू ने पनाह ली, तो उसे लोग इसी नाम से पहचानने लगे. नवाब नजीबुद्दौला ने किले का निर्माण 1755 में कराया था और उन्होंने ही अपने नाम पर नजीबाबाद शहर बसाया. असल में नवाब नजीबुद्दौला का असली नाम नजीब खां था. नजीबुद्दौला का खिताब उन्हें मुगलों के आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर के दरबार से मिला था. बात अगर पत्थर गढ के किले के स्वरूप की जाए तो यह किला लगभग 40 एकड़ भूमि पर बना है. ये किला कितनी मजबूती धारण किए हुए है इस का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसकी दीवारों की चौड़ाई दस फुट से भी अधिक है. इन दीवारों के बीच कुएं बने हुए हैं. इन कुओं की खासियत यह थी कि इनसे किले के अंदर से दीवारों के सहारे ऐसे पानी खींचा जा सकता था कि बाहरी आदमी को पता न चल सके. यह किला लखौरी इंटों व पत्थरों से बना है. किले के दो द्वार हैं, इन पर ऊपर और नीचे दो-दो सीढियां बनी हुई हैं. इसमें 16 फुट चौड़े व 26 फुट लम्बे कमरों की छतें बिल्कुल समतल हैं. दिलचस्प बात यह है कि इसमें कहीं पर भी लौहे के गाटर या स्तम्भ नहीं हैं. इस किले का मुख्य द्वार नजीबाबाद शहर की ओर है. कहा जाता है कि इस में बड़े-बड़े दो दरवाजे लगे हुए थे जो बाद मै उतरवा कर हल्दौर रियासत (राजपूतों की) में लगा दिए गए थे, जहां पर ये आज भी मौजूद हैं. इस के मुख्य द्वार की ऊंचाई लगभग 60 फुट है. इसके ऊपर कमल के फूल पर चार छोटी अष्ट भुजाकार बुर्जियां भी बनी हुई हैं. इन बुर्जियों पर लोहा लगा था. किले में सुरक्षा की दृष्टि से चारों ओर बुर्ज भी बने हुए थे, जो अब टूट गए हैं. किले के चारों ओर गहरी खाई भी खुदी हुई थीं, जो अब भर गई हैं. किले के बाहर सुरक्षा चौकियां बनी हुई थीं, जो अब खंडहर हैं. बताया जाता है कि इस किले के अंदर से दो सुरंगें भी निकाली गई थीं, जो कहीं दूर जंगल में जाकर निकलती थीं. इस किले के अंदर एक सदाबहार तालाब भी है. इस तालाब का पानी आज तक नहीं सूखा है. इसकी गहराई के विषय में अनेक मत हैं. कुछ लोग तो इसे पाताल तक बताते हैं. बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध में नजीबाबाद-कोटद्वार क्षेत्र में सुल्ताना डाकू का खौफ था. कोटद्वार से लेकर बिजनौर यूपी और कुमाऊं तक उसका राज चलता था. बताया जाता है कि सुल्ताना डाकू लूटने से पहले अपने आने की सूचना दे देता था, उसके बाद लूट करता था. जिम कॉर्बेट ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘माय इंडिया’ के अध्याय ‘सुल्ताना: इंडियाज़ रॉबिन हुड’ में एक जगह लिखा है, ‘एक डाकू के तौर पर अपने पूरे करियर में सुल्ताना ने किसी ग़रीब आदमी से एक कौड़ी भी नहीं लूटी. सभी गरीबों के लिए उसके दिल में एक विशेष जगह थी. जब-जब उससे चंदा मांगा गया, उसने कभी इनकार नहीं किया और छोटे दुकानदारों से उसने जब भी कुछ खरीदा उसने उस सामान का हमेशा दोगुना दाम चुकाया.’ नजीबाबाद में जिस किले पर सुल्ताना ने कब्जा किया था आज भी उसके खंडर है. उस किले के बीच में एक तालाब था. बताया जाता है कि सुल्ताना ने अपना खजाना यहीं छुपाया था. बाद में वहां खुदाई भी हुई पर कुछ नहीं मिला. आखिरकार 14 दिसंबर 1923 को सुल्ताना को नजीबाबाद ज़िले के जंगलों से गिरफ्तार कर हल्द्वानी की जेल में बंद कर दिया गया . नैनीताल की अदालत में सुल्ताना पर मुक़दमा चलाया गया और इस मुकदमे को ‘नैनीताल गन केस’ कहा गया. उसे फांसी की सजा सुनाई गई. हल्द्वानी की जेल में 8 जून 1924 को सुल्ताना को फांसी पर लटकाया दिया गया ।
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