Tower,Saini village Tower
मुझमें बचपन से ही इस मीनार के बारे में जानने का उत्साह था शायद आप के मन में भी रहा हो ? माउंट एवरेस्ट। विश्व की सबसे ऊंची चोटी। इस चोटी का नाम जिस महानुभव को समर्पित है, उनकी बनाई निशानी मेरठ में आज भी मौजूद है। चौंकिए नहीं, यह निशानी किसी संदूक या संग्रहालय में कैद नहीं है। यह खुले आसमान के नीचे है, दूर से ही दिखती है। 40 फीट से ज्यादा ऊंची है और दुरुस्त है। स्थानीय लोग इसके बारे में ज्यादा नहीं जानते, लेकिन हां, नाम जरूर दिया है..गड़गज। इसके पीछे का फलसफा क्या है, यह उन्हें नहीं मालूम। तो जार्ज एवरेस्ट ने मेरठ को कौन सी निशानी दी, वह कैसे यहां आई, उसका मकसद क्या था, आइए इन सभी जिज्ञासाओं को शांत करते हैं.. मेरठ-मवाना मार्ग पर जैसे ही सैनी गांव की सीमा में प्रवेश करेंगे, बायीं ओर नजर दौड़ाते ही गांव के तमाम पेड़-पौधों और ऊंची इमारतों के बीच एक तिकोना टावर नजर आएगा। यही वह निशानी है, जिसे सर जार्ज एवरेस्ट ने सर्वेयर जनरल ऑफ इंडिया के पद पर रहते हुए बनवाया था। इसकी निर्माण तिथि तो कहीं अंकित नहीं, लेकिन जार्ज 1830 से 1843 तक सर्वेयर जनरल रहे, लिहाजा इस टावर का निर्माण वर्ष भी इसके बीच का ही माना जाता है। यानि यह टावर 180 वर्ष से भी पुराना है। अक्षांश-देशांतर तय करता था यह टावर ईस्ट इंडिया कंपनी ने ¨हदुस्तान का नक्शा तैयार कराने की जिम्मेदारी ट्रिग्नोमेट्रिकल सर्वे ऑफ इंडिया को सौंपी। इस काम को अंजाम देने वालों ने पैदल चलकर देश के एक कोने से दूसरे कोने तक का सफर तय किया। एक ही बार में 2400 किमी उत्तर से दक्षिण का सर्वे उन्होंने कर दिया था। इसकी खातिर एक विशेष तरह का यंत्र उनके पास होता था, जिसका वजन आधा टन था और 12 लोग पैदल ही ढोते थे। पहाड़ी और पठारी इलाकों में तो ऊंचे टीले या चोटी पर इसे रखा जाता था, लेकिन चूंकि हमारा क्षेत्र मैदानी है, लिहाजा यहां मेरठ सहित कई स्थानों पर टावर बनाए गए। यहां उस यंत्र को पहुंचाकर अक्षांश-देशांतर मापने का काम होता था। आईने से टकराकर कोण बनाती थीं नीली रोशनी विशेष प्रकार के उपकरण में आईना लगाया जाता था और रात के समय नीली रोशनी का प्रवाह इस मशीन से कराया जाता था। तीन टावरों से रोशनी एक दूसरे को केंद्र कर छोड़ी जाती थी। चूंकि रात में नीली रोशनी का प्रवाह सबसे ज्यादा दूर तक होता है, लिहाजा इस रंग का इस्तेमाल किया गया। एक टावर से निकली रोशनी, दूसरे या तीसरे टावर पर लगे यंत्र के आइने से टकराकर कोण बनाती थी, इसी के आधार पर उस वक्त के जानकार गणना कर नक्शा तैयार कर देते थे। यह विशेष उपकरण केवल इंग्लैंड में बनता था। बताया जाता है कि इस पद्धति से पहले हमारे देश का नक्शा गलत था। बंगाल की खाड़ी और अरब सागर के बीच की वास्तविक दूरी और नक्शे की जानकारी इसी पद्धति से नापी गई थी। इस नक्शे की प्रमाणिकता का इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि एयर फोर्स के कई अधिकारी सार्वजनिक तौर पर यह कहते रहे हैं कि कई मायनों में सैटेलाइट मैप की तुलना में ट्रिग्नोमेट्रिकल मैप ज्यादा सटीक है। इसकी वजह है कि ट्रिग्नोमेट्रिकल मैप में गहराई सटीक होती है, सैटेलाइट से मिलने वाले नक्शों पर यह कई बार भ्रम पैदा करता है। खतौली और हस्तिनापुर में भी निशां मेरठ में सैनी गांव के अलावा हस्तिनापुर के टीले पर भी एक टावर होता था। अब हस्तिनापुर का टावर नष्ट हो चुका है। उसके अवशेष मिलते हैं। कुछ इसी तरह खतौली में भी टावर है। करनाल हाईवे पर मुख्य मार्ग से 500 मीटर की दूरी पर भी टावर के निशां हैं। इतना ही नहीं, नोएडा में भी काफी दिनों तक ट्रिग्नोमेट्रिकल सर्वे ऑफ इंडिया का टावर खड़ा रहा। पश्चिमी उप्र में सैनी गांव जैसे 14 टावर बनाए गए थे, जबकि शेष स्थानों पर बांस के स्ट्रक्चर का सहारा लिया गया था।
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