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रटौल गाँव: एक ऐतिहासिक झलक आपने रटौल आम के बारे में किसी न किसी से तो जरूर सुना होगा। हो सकता है कि आपने इस मीठे-रसीले रटौल आम का स्वाद भी लिया हो। लेकिन क्या आपको इसके इतिहास के बारे में जानकारी है? नहीं। चलिए आज हम आपको फलों के राजा, आम के परिवार में मौजूद मीठे-रसीले रटौल आम से गुफ्त-गु करवाते ह

रटौल गाँव: एक ऐतिहासिक झलक आपने रटौल आम के बारे में किसी न किसी से तो जरूर सुना होगा। हो सकता है कि आपने इस मीठे-रसीले रटौल आम का स्वाद भी लिया हो। लेकिन क्या आपको इसके इतिहास के बारे में जानकारी है? नहीं। चलिए आज हम आपको फलों के राजा, आम के परिवार में मौजूद मीठे-रसीले रटौल आम से गुफ्त-गु करवाते हैं। दिल्ली से केवल 25 किलोमीटर दूर और मेरठ से लगभग 50 किलोमीटर दूर, उत्तर प्रदेश के जिला बागपत में, एक छोटा-सा गाँव बसा हुआ है – रटौल। यह गाँव सिर्फ रटौल आम के लिए ही नहीं बल्कि अपनी ऐतिहासिक व सांस्कृतिक धरोहर के लिए अपनी पहचान बनाए हुए है। रटौल के इस गाँव का इतिहास हमें उस समय की याद दिलाता है जब इस क्षेत्र का विकास हो रहा था और उसके पीछे छिपे कई रहस्यों की खोज की जा रही थी। इस छोटे से गाँव रटौल में होने वाली कई ऐतिहासिक घटनाओं और यहाँ के सामाजिक व्यक्तियों के योगदान ने इस क्षेत्र में अपनी छाप छोड़ी हुई है। अगर इस गाँव के इतिहास के बारे में पढ़ें तो यहाँ की एक इमारत आज भी अपनी कहानी गा रही है। इस इमारत का नाम है – “शीश महल” रटौल गाँव में "शीश महल" को लगभग 200 साल पहले बनवाया गया था। आज भी इस महल की ऊँची दीवारों पर लगे काँच के निशान उस समय के शीश महल की भव्यता को दर्शाते दिखाई देते हैं। इस गाँव का इतिहास इस तथ्य के साथ भी जुड़ा है कि यहाँ के निवासी मुंशी हकीमुद्दीन सिद्दीकी और मुंशी शम्सुद्दीन सिद्दीकी जैसे व्यक्तित्वों के अमिट योग्दान ने इस गाँव के ऐतिहासिक पन्नों में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा। उस वक्त गाँव में मुंशी हकीमुद्दीन सिद्दीकी, डिप्यूटी कलेक्टर के पद पर और उनके भाई मुंशी शम्सुद्दीन सिद्दीकी, असिस्टेंट कमीशनर रेवेन्यू के पद पर कार्यरत थे। अपने कार्यकाल को पूरा करने के बाद मुंशी हकीमुद्दीन सिद्दीकी, भोपाल रियासत के ‘वजीर-ए-माल’ बन गए। इसके साथ ही, उन्होंने रटौल गाँव में बने भव्य "शीश महल" की तामीर का विचार किया, जोकि भोपाल की सदर मंजिल का हू-ब-हू एक छोटा-सा नमूना था। साल 1971-1972 में, मुंशी बिहारी लाल,(तहसीलदार) और मुंशी नासिर अली खान,(डेप्यूटी कलेक्टर) बंदोबस्त के साफा नंबर-161 के तहत काम कर रहे थे। उस समय के बारे में जानने के लिए मिले संदर्भ बताते हैं कि 7वीं सदी में दो भाइयों ने अरब से भारत में आकर स्थानीय जीवन को नया दिशा दी। मुग़ल काल की शुरुआत में, ये दोनों भाई दिल्ली से जिला मुजफ्फरनगर और फिर बागपत, जिला मेरठ में आकर बस गए थे। यहाँ मौजूद स्थानीय आबादी को देख दोनों भाईयों ने इस जगह को अपने नए घर के रूप में अपनाया। मुंशी अज़ीज़ुद्दीन अहमद सिद्दीकी, जो गोंडा, उत्तर प्रदेश में सहायक कलेक्टर थे, उनके चार पुत्र थे - मुंशी हकीमुद्दीन, शम्सुद्दीन, वलीउल्लाह, और आफ्ताबुद्दीन। मुंशी हकीमुद्दीन सिद्दीकी, (मुंशी अज़ीज़ुद्दीन मरहूम के पहले बेटे), ने डिप्यूटी कलेक्टर के पद पर गोंडा में काम किया, और सेवानिवृत्त के बाद वह भोपाल रियासत में वित्तमंत्री बने। उनका इंतकाल साल 1915 में हुआ। उनका मज़ार रटौल में नूर बाग में स्थित है। मुंशी शम्सुद्दीन, (मुंशी अज़ीज़ुद्दीन मरहूम के दूसरे बेटे), साल 1899 में उत्तर प्रदेश के डिप्यूटी कमीशनर रेवेन्यू बने। उनके सगे बड़े भाई मुंशी हकीमुद्दीन सिद्दीकी के साथ में उनका मज़ार नूर बाग में ही मौजूद है। डॉ. वलीउल्लाह (मुंशी अज़ीज़ुद्दीन के तीसरे बेटे), इंडियन आर्मी में डॉक्टर थे, जो पहले विश्व युद्ध (साल 1914-1918) में ज़रबे-गिराम में ‘प्रीज़नर-ऑफ-वॉर’ के रूप में सेवानिवृत्त हुए। जब वे तुर्की में 2 साल 7 महीने के लिए कैंप में रहे तो घर वापसी की सूचना उन्होंने एक पत्र लिखकर दी। मुंशी शम्सुद्दीन सिद्दीकी मरहूम की सर्विस बुक से मुंशी अज़ीज़ुद्दीन सिद्दीकी के लिए उनके मर्हूम भाई डॉ. वलीउल्लाह द्वारा लिखे गए संवेदना पत्र आज भी सही सलामत मौजूद हैं, जो संलग्न हैं। मुंशी हकीमुद्दीन और मुंशी शम्सुद्दीन के विभिन्न पदों पर अलग-अलग जगह पोस्टिंग होने की वजह से, मुंशी आफ्ताबुद्दीन (मुंशी अज़ीज़ुद्दीन के चौथे बेटे) ने गाँव रटौल में अपने भाईयों के बागीचों की देखभाल की। मुंशी शम्सुद्दीन (मुंशी अज़ीज़ुद्दीन मरहूम के दूसरे बेटे) के बेटे मज़हरुद्दीन सिद्दीकी ने जामिया यूनिवर्सिटी, दिल्ली में खाता अधिकारी का पद संभाला। इनकी मज़ार जामिया यूनिवर्सिटी के कब्रिस्तान में है। ज़मीरूद्दीन सिद्दीकी जामिया में अकाउंट ऑफिसर और उनके बेटे शाहबुद्दीन सिद्दीकी फिर प्रोग्राम को-ऑर्डिनेटर एसआरसी दिल्ली - डायरेक्टरेट ऑफ एडल्ट एजुकेशन, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार से सेवानिवृत्त होने के बाद, जमिया नगर, दिल्ली में आवास करते हैं। हकीमुद्दीन साहब (मुंशी अज़ीज़ुद्दीन मरहूम के पहले बेटे), की दूसरी औलाद जनाब़ हाज़ी बद्दरूद्दीन चिश्ती, सजादा नाशीन मकदून सिराजुद्दीन, रिटौल हौनऱरी डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की साहबज़ादी निगार फातिमा की चार औलाद में डॉ.सिराजुद्दीन मरहूम अपने वालिद हकीम सैफुद्दीन साहब पद्मश्री के नकश-ए-कदम पर चलकर यूपी रतन से नवाज़े गए। जनाब हिकमत के पेशे के साथ-साथ मज़हबी और सियासी कामों में भी मश्हुर रहे। उनके दूसरे बेटे डॉ. मैराजुद्दीन ने रियारत में खूब शौहरत हासिल की और उत्तर प्रदेश सरकार में वज़ीर भी रहे। निगार फातिमा की दो बेटियाँ – अंजुम और तबस्सुम हैं। मुंशी हकीमुद्दीन (मुंशी अज़ीज़ुद्दीन मरहूम के पहले बेटे) के बेटे उबैदुल हक सिद्दीकी तहसीलदार बने, उनके बेटे नूरुद्दीन सिद्दीकी तहसीलदार के पद से रिटायर हुए, नूर बाग़ रटौल में उनकी कब्र मुंशी शम्सुद्दीन और हकीमुद्दीन के बराबर में ही है। नूरूद्दीन के बेटे जहरूद्दीन सिद्दीकी ने डीयू में प्रोफेसर हुए। यह गाँव एक ऐसी ऐतिहासिक शख़्सियत का घर है जिसने सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक विकास के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। रटौल गाँव की यह धरती हमें दिखाती है कि कोई छोटा-सा स्थान भी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संपत्ति का साक्षी बन सकता है। यहाँ के मकान व यहाँ के जीवन की कहानियों के माध्यम से हमें वो दौर सुनाई देता हैं, जब इस क्षेत्र में नए आरंभों का संकेत दिया जा रहा था। रटौल गाँव ने अपने ऐतिहासिक पारंपरिक धरोहर को संजोय रखा है, और यह दिखाया है कि इस गाँव का इतिहास सदैव ही हमारे दिलों में बसा रहेगा।

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