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मेरठ के वह व्यक्ति जिसने माउंट एवरेस्ट पर भारत के पहले चढ़ाई अभियान का नेतृत्व किया पद्मश्री ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह जी .

मेरठ के वह व्यक्ति जिसने माउंट एवरेस्ट पर भारत के पहले चढ़ाई अभियान का नेतृत्व किया पद्मश्री ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह जी . यह कहानी है एक ऐसे महान व्यक्तित्व की जिसके बारे में लिखना स्टूडियो धर्मा के लिये गर्व की बात है। एक ऐसी शख्सियत जिन्होंने हमारे देश के भविष्य को आकर देने में अपना जीवन व्यतीत कर दिया । हम बात कर रहे हैं पद्मश्री ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह जी की। मेरठ शहर से उनका सम्बन्ध होना मेरठ के लिए गौरव की बात है। 1960 में, उन्होंने माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने के पहले भारतीय प्रयास का नेतृत्व किया। दुर्भाग्य से, अभियान शिखर से 200 मीटर कम रह गया था जब बहुत खराब मौसम के कारण उन्हें वापस लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा। पद्मश्री ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह जी का जीवन एक ऐसी कथा है जिसने अनेकों लोगों को प्रेरित किया। आपने आर्मी से लेकर मॉउंटेनियरिंग तक अपना बहुमूल्य योगदान दिया, देश विदेश की बड़ी बड़ी हस्तियों ने आपको अपना गुरु माना । अनुशासन, दूरदर्शिता और प्रतिष्ठा का समागम पद्मश्री स्वर्गीय ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह जी। आपका जन्म ग़ुलाम भारत के यूनाइटेड प्रोविंस यानी आज के समय के उत्तर प्रदेश के मैनपुरी में हुआ था। अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा उन्होंने मेरठ में गुज़ारा और आखरी वक़्त देहरादून में । ऐसी शख्सियत के जीवन के बारे में जानना जितना रोचक है उतना ही सम्मान की बात है । 1963 में पद्मश्री ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह जी ने मेरठ के शोभापुर में एक फार्म हाउस तैयार किया। वर्तमान समय में यह उनके पोते रंजीत सिंह मांगट जी का निवास है। अपने दादा की विरासत को उन्होंने बखूबी संभाला हुआ है। रणजीत जी कानाताल में हाईकिंग व मॉउंटेनियरिंग के लिए लोगों को होस्ट करते हैं और मेरठ में भी अपने मांगट फार्म हाउस पर फार्म स्टे का लुत्फ़ उठा सकते है,यूँ तो अपनी शिक्षा कानून के विषय में की है लेकिन व्यवसाय से वह एक किसान है। अपनी माटी और अपनी विरासत के प्रति उनकी इज़्ज़त अद्वित्य है। स्वर्गीय पद्मश्री ब्रिगडैयार ज्ञान सिंह जी के जीवन के बारे में उनके पोते से बेहतर कोई नहीं बता सकता इसी लिए हमने रणजीत सिंह जी से इस विषय में बात चीत की। इस तमाम जानकारी का प्राथमिक स्रोत रणजीत सिंह माँगट जी हैं। शुरूआती जीवन पद्मश्री ज्ञान सिंह जी का परिवार पंजाब से था। पिताजी ब्रिटिश भारत में SDO, सिंचाई विभाग थे। हर सामान्य पिता की तरह वह अपने बच्चों के सुरक्षित भविष्य के लिए फिक्रमंद थे। पद्मश्री ज्ञान सिंह जी के बड़े भाई को पढाई के लिए उन्होंने अमेरिका भेज दिया था। जब ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह जी के कॉलेज जाने का समय आया तो उन्होंने पिता से बड़े भाई के पास अमेरिका जाने की ज़िद्द की। परन्तु उनके पिता दो बच्चो की विदेश में पढ़ाई का खर्चा उठाने में असमर्थ थे। इस बात से निराश हो कर पद्मश्री ज्ञान सिंह जी फ़ौज में भर्ती हो गयी। यह दिन था 9 सितम्बर 1936। शुरूआती दिनों में वह एक सवार के तौर पर ही शामिल हुए थे परन्तु वह पढ़े लिखे थे इसीलिए अपनी काबिलियत के बल पर उन्हें सेना में बड़े ओहदे पर पहुँचने में समय नहीं लगा। ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह जी के सहपाठियों में आने वाले समय के पाकिस्तान और बांग्लादेश के आर्मी चीफ यहयहा खान, अय्यूब खान, टिक्का खान इत्यादि शामिल थे। ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह जी की प्रतिष्ठा और सम्मान इतना ज़्यादा था कि देश दुनिया की बड़ी बड़ी हस्ती उनसे मिलने मेरठ आया करती थी। वो चाहे सुश्री बछेंद्री पाल जी हो या एवेरस्ट को सबसे पहले फतह करने वाले Tenzing Norgay हो या आर्मी के बड़े ओहदेदार। सब के लिए पद्मश्रि ज्ञान सिंह जी प्रेरणा का एक स्रोत थे सरल शब्दों में कहे तो उनके चेले थे। रणजीत मंगत जी से हमें पता चला कि पद्मश्री ज्ञान सिंह जी और अभिनेता देवानन्द के बहुत अचे सम्बन्ध थे । देवानन्द जी को भी हाईकिंग और पर्वतोराहां का बड़ा शौक था। इसी सिळिले में वह ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह जी से मिलने आया करते थे। इसके अलावा भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के करीबी लोगों में भी ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह जी शामिल थे। जिस तरह पंडित जवाहर लाल नेहरू को लोग चाचा जी कहकर बुलाते थे उसी तरह पद्मश्री ज्ञान सिंह जी को प्यार से छोटे चाचा बुलाया जाता था । आज भी सुश्री बछेंद्री पल जी उन्हें छोटे चाचा केनाम से सम्बोधित करती हैं। सैन्य जीवन अगस्त 1947 में भारत आज़ाद हुआ। हर शख्स आज़ादी के जश्न में मगन था। उन्हीं दिनों पकिस्तान ने कश्मीर में अपनी फ़ौज और कुछ बाग़ियों की भीड़ भेज दी। जिससे कश्मीर प्रान्त में अफरा तफरी फ़ैल गयी। आज़ाद होने के तुरंत बाद इस हमले के लिए भारत तैयार नहीं था। आत्मरक्षा के लिए भारत को भी अपनी सेना कश्मीर में भेजनी पड़ी। उस समय पद,श्री ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह जी ने 11 फील्ड अर्टिलरी रेजिमेंट की कमान संभाली और मज़बूत नेतृत्व के साथ युद्ध किया। युद्ध की परिस्तिथियाँ और परिणामों की गवाह इतिहास की किताबें हैं। सन 1949 -50 की बात है जब पद्मश्री ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह जी ने हाई अल्‍टीट्यूड वॉरफेयर स्कूल में ट्रेनिंग हासिल की। द हाई एल्टीट्यूड वारफेयर स्कूल गुलमर्ग कश्मीर में स्तिथ भारतीय सेना की एक रक्षा सेवा प्रशिक्षण और अनुसंधान प्रतिष्ठान है। 1948 में, भारतीय सेना ने इसकी स्थापना की जो स्नो-क्राफ्ट और विंटर वारफेयर में महारत सिखाता था। साल 1960 में वह अपनी टीम के साथ दुनिया के सबसे ऊँचे पर्वत को भेदने निकल पड़े। उन्होंने माउंट एवरेस्ट के पहले अभियान का नेतृत्व किया लेकिन बदक़िस्मती से खराब मौसम के कारण वह लोग शिखर पर 300 फीट से चूक गए। इसी बीच उन्हें सेना से बुलावा आ गया। उन्होंने सन 1963 - 64 में दो आर्टिलरी ब्रिगेड की कमान संभाली। लेकिन उसी वर्ष उन्होंने सेवानिवृत होने का मन बना लिया था। 1964 में उन्होंने सेना से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का आवेदन कर दिया। रिटायरमेंट के बाद सेना में अपनी ज़िम्मेदारी अदा करने के बाद वह पर्वतारोहण के क्षेत्र में समय व्यतीत करना चाहते थे। उस समय के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भी पर्वतों में बहुत रूचि रखते थे। नेहरू के आग्रह और अपनी इच्छा के चलते वह वर्ष 1965 में नेहरू पर्वतारोहण संस्थान, उत्तरकाशी के संस्थापक प्राचार्य बने। वर्ष 1968 तक उस संसथान में उन्होंने सेवा प्रदान की। उस दौर में पद्मश्री ब्रिगेडयर ज्ञान सिंह जी देश में कार्यरत हर पर्वतारोहण, स्कीइंग और साहसिक संस्थान से क़रीब से जुड़े रहे हैं। न सिर्फ भारत बल्कि श्रीलंका, नेपाल और यूरोप के कई देशों में भी उन्होंने युवा दर्शकों के लिए लगभग 800 सेमिनार्स किये। उन्होंने 1979 में कैंडी में श्रीलंका की नेशनल एकेडमी ऑफ एडवेंचर की स्थापना की। उसी साल, 1979 में ही, उन्होंने नेशनल एडवेंचर फाउंडेशन की स्थापना की और पूरे भारत में एडवेंचर क्लबों की एक श्रृंखला स्थापित की। वर्ष 1983 में उन्होंने जवाहर इंस्टिट्यूट ऑफ़ माउंटेनियरिंग की स्थापना में बहुत अहम् भूमिका निभाई थी। य एचएमआई, दार्जिलिंग और एनआईएम, उत्तरकाशी की तर्ज पर संस्थान 1983 में अस्तित्व में आया। संसथान की साइट का चयन करने का दायित्व "एवरेस्टर" स्वर्गीय पद्मश्री ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह पर ही पड़ा। वह "ल्योर ऑफ एवरेस्ट" के लेखक हैं, जिसकी प्रस्तावना भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लिखी थी। कई अन्य पुस्तकें लिखने के अलावा, उन्होंने "माई जर्नी टू द टॉप" लिखने में एवरेस्ट समिटियर सुश्री बछेंद्री पाल के साथ सहयोग किया। राष्ट्रीय दैनिक अख़बारों और पत्रिकाओं में उनके 51 से अधिक लेख प्रकाशित हुए हैं। पुरूस्कार व सम्मान ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह के जीवन में जितनी उपलब्धियां रहीं उतनी ही चुनौतियां भी थीं। अपनी सेवाओं और बेमिसाल योगदान के लिए उन्हें 1961 में भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद द्वारा पद्म श्री से सम्मानित किया गया था। पर्वतारोहण के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हें 1993 में आईएमएफ स्वर्ण पदक से भी सम्मानित किया गया था। आखिर साल 1997 आया और इस महान शख्सियत की कहानी अपने अंत को आ पहुंची। 79 साल की उम्र में स्वर्गीय रिटायर्ड ब्रिगेडयर ज्ञान सिंह जी के देह की मृत्यु हो गयी और अमर हो गयी उनकी देश प्रेम से भरी भव्य कहानी। पर्वतारोहण के क्षेत्र में राष्ट्र के लिए उनकी सेवाओं के लिए, ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह को लाइफ टाइम अचीवमेंट के लिए राष्ट्रीय साहसिक पुरस्कार से सम्मानित किया गया जो की उनके पोते रणजीत सिंह माँगट ने उनकी ओर से प्राप्त किया था। एक ऐसी शख्स जिसने ब्रिटिश भारत से आज़ाद भारत के चढ़ते सूरज तक का सफर अपनी आँखों से देखा हो, Tenzing Norgay और बछेंद्री पाल जैसे व्यक्तित्व तैयार किये हों। जो भारत के पहले प्रधानमंत्री के सबसे ख़ास लोगों में हों। जिनके द्वारा शरू किये गए संस्थानों से हज़ारो हुनरमंद लोग निकले हों, ऐसे शख्स को अगर हम भुला रहे हैं तो यह अपनी गौरव इतिहास से बेईमानी है। पद्मश्री ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह जी भारत की एक ऐसी धरोहर हैं जिनकी कोई बराबरी नहीं कर सकता। ऐसी शख्सियत के बारे में जानना और आप लोगो तक इस कहानी को पहुँचाना स्टूडियो धर्मा के लिए गर्व की बात है। Ranjit singh ji Mangat contact: +91 84100 40300 www.mangatfarms.com

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