कोटला फ़िरोज़ शाह किला,दिल्ली .
कोटला फ़िरोज़ शाह किला,दिल्ली .
दिल्ली ने न जाने कितनी सल्तनतें देखीं , कितने ही सुल्तानों का दौर देखा, कितने ही उभरते हुए सूरज दिल्ली में आ कर डूबे। आज भी उन सल्तनतों के आसार हमें दिल्ली में देखने को मिलते हैं। उन्ही पुरानी निशानियों में से एक ऐसा क़िला है जो आज हालाँकि एक खंडहर है लेकिन यह एक ऐतिहासिक सुलतान का घर हुआ करता था।
सन् 1320 में खिलजी सल्तनत के आखरी दिन चल रहे थे। खुसरो खान दिल्ली के तख़्त पर विराजमान था और पूरी दिल्ली सल्तनत बिखरने की कगार पर थी। ऐसे में पंजाब के क़बीलों का नेतृत्व करते हुए ग़ाज़ी मालिक नाम के एक सरदार ने दिल्ली पर हमला कर दिया और तख्ता पलट दिया। सितम्बर 1320 वो वक़्त था जब खिलजियों का परचम गिर गया और तुग़लक़ सल्तनत का सूरज ऊगा। ग़ाज़ी मालिक ने खुद को सुल्तान क़रार दिया और अपना नाम रखा ग़यासाद्दीन तुग़लक़।
ग़यासुद्दीन तुग़लक़ के बाद पांच साल तक ग़यासाद्दीन तुग़लक़ के बेटे मुहम्मद बिन तुग़लक़ का दौर चला। मुहम्मद बिन तुग़लक़ की मृत्यु के बाद उनके चचेरे भाई फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ ने 23 मार्च 1951 को तख़्त संभाला और दिल्ली में एक नया दौर शुरू हुआ। हालाँकि मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने अपनी राजधानी दौलताबाद को बनाया था जो महारष्ट्र में है लेकिन फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ ने दिल्ली को ही अपनी रियासत की राजधानी बनाया।
फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ सलतनत के लिए अच्छी आर्थिक पॉलिसीस लाया। बहुत सारे निर्माण कराये इनमें हॉस्पिटल्स, पुल, नहरें, सराये वगैरह एक बड़ी तादाद में बनवाये गए। इसी के साथ फ़िरोज़ शाह ने एक क़िला भी दिल्ली में बनवाया जिसे फ़िरोज़ शाह कोटला के नाम से जाना जाता है। फ़िरोज़ शाह का यह क़िला आज केवल एक खंडहर बचा है जिसकी देख भाल की जाती है। इस क़िले में किस जगह क्या हुआ करता था, तोप खाने, जेल, कमरे, दरबार वगैरह का आसार मिलना लगभग असंभव है, सूनी कड़ी चुप दीवारें बस एक दुसरे के चेहरे को ही तकती हैं। हालाँकि कुछ दरबारी कवियों और इतिहासकारों के लेख और वर्तमान संरचना को देख कर इतिहासकारों ने इसका नक़्शा बनाने की कोशिश की है।
क़िले में कुछ संरचनाएं ऐसी मौजूद है जो अब भी काफी हद तक सलामत हैं। इनमें से सबसे प्रमुख है अशोक स्तम्भ। तीन मंज़िला ईमारत के ऊपर मौजूद 13. मीटर ऊंचा यह अशोक स्तम्भ आज भी अपनी शान के साथ मौजूद है। फ़िरोज़ शाह ने इस स्तम्भ को टोपरा से मंगाया था जो हरयाणा के यमुनानगर ज़िले में पड़ती है। हालाँकि उस समय इस पर लिखी हुई लिपि की समझ लोगों को नहीं थी। लेकिन इस को पूरी शान शौकत के साथ स्थापित किया गया। बाद में सं 1837 में जेम्स प्रिंसेप ने इस लिपि को decypher किया और पता चला कि यह ब्राह्मी लिपि है। इस पर जो आलेख है उसका अंग्रेजी अनुवाद यह है।
Along the highroads I have caused fig trees to be planted that they may be for shade to animals and men...
...And let these and others the most skillful in the sacred offices discreetly and respectfully use their most persuasive efforts, acting on the heart and eyes of the children, to impart enthusiasm and instruction in the dharma (religion).
And whatsoever benevolent acts have been done by me, the same shall be prescribed as duties to the people who follow after me, and in this manner shall their influence and increase be manifest – by service to father and mother, by service to spiritual pastors, by respectful demeanor to the aged and full of years, by kindness to learn, to the orphan and destitute and servants and minstrel tribe.
And religion increaseth among men by two separate processes – by the performance of religious offices, and by security against persecution. (...) And that religion may be free from the persecution of men, that it may increase through the absolute prohibition to put to death (any) living beings or sacrifice aught that draweth breath. For such an object is all this done, that it may endure to my sons and sons' sons – as long the sun and the moon shall last.
Let stone pillars be prepared and let this edict of dharma (religion) be engraved thereon, that it may endure unto the remotest ages.
आज यह कम्पाउंड बंद है, किसी भी शख्स को अंदर जाने की इजाज़त नहीं है। अशोक स्तम्भ के बराबर में ही मौजूद है जामा मस्जिद। सदियों पुरानी इस मस्जिद का द्वार आज भी भव्य और विशाल है। मस्जिद का काफी हिस्सा वक़्त के बेरहम रवैये की भेंट चढ़ चूका है लेकिन सदियों बाद भी यहाँ नमाज़ और प्रार्थना जारी है। मस्जिद का सहन काफी बड़ा है। यहाँ एक हॉल भी हुआ करता था जहाँ महिलाएं नमाज़ अदा करती थी। बताया जाता है जब 1398 में तैमूर ने दिल्ली पर हमला किया तो वो नमाज़ पढ़ने इस मस्जिद में आया। इस मस्जिद की भव्यता और तुग़लक़ वास्तुकला के नमूने से वह इतना प्रसन्न हुआ कि उसने समरक़ंद में भी इस तरह की एक मस्जिद बनवायी।
इसके अलावा यही वो मस्जिद है जहाँ 1759 में मुग़ल सल्तनत के प्रधानमंत्री इमादुल मुल्क ने शहंशाह आलमगीर द्वेतोय को क़त्ल किया था।
क़िले के प्रांगण में एक बावड़ी भी मौजूद है। यह 'बावड़ी अशोक स्तंभ के उत्तर-पश्चिमी तरफ स्थित है। खूबसूरत बाग़ीचे में मौजूद यह बावड़ी दिल्ली की एकमात्र गोलाकार बावली है, और ऐसी 4 बावलियों में से एक है, जहां टैंक कुएं से अलग नहीं है। पुराने वक़्त में इस पर छत हुआ करती थी, जो बहुत पहले ढह गई। मूल रूप से इसमें पूर्व और पश्चिम में दरवाज़े मौजूद थे, लेकिन अब केवल पश्चिम की ओर का ही दरवाज़ा मौजूद है जॉकी सुरक्षा कारणों की वजह से बंद ही रहता है।
फ़िरोज़ शाह का क़िला एक बेहद शानदार ऐतिहासिक जगह है जहाँ आप कुछ देर अगर शान्ति से बैठें तो आप उसकी भव्यता उसकी उम्र और उस दौर को जी सकेंगे। खंडहर बनी हुई यह ईमारत एक दौर में दिल्ली का दिल हुआ करती थी। यह टूटी फूटी दीवारें इस बात का संकेत हैं कि हर उभरते सूरज को ढलना है। अगर आप दिल्ली जाएं तो फ़िरोज़ शाह कोटला ज़रूर देखने जाएं। दिल्ली गेट मेट्रो स्टेशन से कुछ दूर के फासले पर ही इतिहास का यह बेशक़ीमती मोती स्तिथ है।